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महर्षि पतंजलि ने अपने "योगसूत्र" मे प्राणायाम को विस्तार से परिभाषित किया है। इसमें वे चार प्रकार के प्राणायाम का वर्णन करते हैं। इनमे पहले तीन प्राणायाम सामान्य अभ्यासियों के लिये हैं। और चौथा प्राणायाम नियमित तथा प्रवीण अभ्यासियों के लिये है। यह उच्च-कोटि का प्राणायाम है। इसी को पतंजलि योग मे चतुर्थ प्राणायाम कहा गया है। प्रस्तुत लेख मे आगे इसको विस्तार से बताया जायेगा।

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चतुर्थ (चौथा) प्राणायाम क्या है?

पतंजलि योगसूत्र मे सामान्य साधकों (अभ्यासियों) के लिये तीन प्रकार के प्राणायाम का वर्णन किया है। इन तीन प्राणायामों का सफलता पूर्वक अभ्यास होने के बाद चौथे प्राणायाम (चतुर्थ प्राणायाम) का अभ्यास करना चाहिए। जब तक पहले तीन प्रकार के प्राणायामों का सफलता पूर्वक अभ्यास नही होता है, इसका अभ्यास  नही करना चाहिए। इसलिए पहले तीन प्रकार के प्राणायाम को समझ लेते हैं।

तीन प्रकार के प्राणायाम :

योगसूत्र के दूसरे अध्याय 'साधन पाद' मे तीन प्रकार के प्राणायाम का वर्णन आता है :-

बाह्याभ्यन्तर स्तम्भवृत्ति देशकालसंख्याभि:परिदृष्टो दीर्घसूक्ष्म:।। 2.50।।

सूत्र का भावार्थ :- बाह्य वृत्ति, आभ्यन्तर वृत्ति तथा स्तम्भ वृत्ति ये तीन प्राणायाम हैं। साधक इन तीनो का अभ्यास देश, काल व संख्या पूर्वक देखते हुए करता है तो वह उच्च स्थिति मे पहुंच जाता है। वहां उसका श्वास लम्बा और हल्का हो जाता है।

इस सूत्र में तीन प्रकार के प्राणायाम का वर्णन है :-

1. बाह्य वृत्ति
2. आभ्यन्तर वृत्ति
3. स्तम्भ वृत्ति

साधक को आरम्भ मे इन तीनों का अभ्यास करना चाहिए। इनके सफलता पूर्वक अभ्यास के बाद ही चौथा प्राणायाम करना चाहिए। पतंजलि योग मे इसे चतुर्थ प्राणायाम कहा गया है। लेकिन पहले आरम्भिक तीन प्राणायाम के विषय में समझ लेते हैं।

1. बाह्य वृत्ति प्राणायाम :

भरे हुए श्वास को बाहर छोड़ कर कुछ देर खाली श्वास की स्थिति मे रुकना बाह्य वृत्ति है।

विधि :

• पद्मासन या सुखासन की स्थिति मे बैठें। आँखें कोमलता से बन्ध, रीढ को सीधा तथा हाथों को ज्ञान मुद्रा की स्थिति मे रखें।

धीरे-धीरे श्वास बाहर निकालें। पूरी तरह श्वास खाली करने के बाद मूल बन्ध लगाएं। (मूल बन्ध :- गुदा भाग का संकोचन करके ऊपर की ओर खींचना।)
पेट (नाभी) को पीछे के ओर खींचे। गर्दन को आगे की ओर झुकाकर ठोडी कण्ठ से लगाएँ। खाली श्वास की स्थिति मे कुछ देर रुकें।

अपनी क्षमता अनुसार कुछ देर रुकने के बाद धीरे से श्वास भरें। श्वासो को  सामान्य करें।

2. आभ्यन्तर वृत्ति :

श्वास को अन्दर लेने के बाद, भरे हुए श्वास की स्थिति मे कुछ देर ठहरना आभ्यन्तर वृत्ति है।

विधि :

धीरे-धीरे श्वास को अन्दर की ओर लें। पूरी तरह श्वास भरने के बाद, मूल बन्ध लगाएँ। गर्दन आगे की ओर झुकाएं। भरे श्वास की स्थिति मे कुछ देर रुकें।

अपनी क्षमता अनुसार कुछ देर रुकने के बाद श्वास बाहर निकालें। श्वास सामान्य करें।

3. स्तम्भ वृत्ति प्राणायाम :

उपरोक्त दोनो प्राणायाम के बाद, श्वास को यथा स्थिति मे कुछ देर रोकना स्तम्भ वृत्ति है।

विधि :

• पहले बताये गये दोनो प्राणायाम (बाह्य वृत्ति व आभ्यन्तर वृत्ति) के बाद श्वासों के सामान्य करें।

श्वास सामान्य करते हुए, श्वासों को अप्रयास विराम दें। न श्वास भरने का, न छोड़ने का प्रयास करें। अपने आप श्वास आती है, आने दें। अपने आप श्वास बाहर जाती है, तो निकलने दें।

कुछ देर बाद श्वासों को यथा स्थिति मे विराम दें। चाहे श्वास भरी अवस्था मे हो या खाली अवस्था मे, कुछ सैकेंड का विराम दें।

श्वासों का अवलोकन करें। यदि ऐसा करते हुए सुखद स्थिति का अनुभव होता है, यह स्तम्भ वृति है।

4. चतुर्थ प्राणायाम :

उपरोक्त तीन प्राणायाम का सफलता पूर्वक अभ्यास के बाद इसका अभ्यास करना चाहिए। नये अभ्यासी आरम्भ मे पहले बताये गये तीन प्राणायाम का अभ्यास करें। उसके बाद इसका अभ्यास करना चाहिए।

चतुर्थ प्राणायाम की परिभाषा :- महर्षि पतंजलि इस प्राणायाम को परिभाषित करते हुए एक सूत्र देते हैं :- बाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपि चतुर्थ:।। 2.51 ।।

अर्थात् :- बाह्य वृत्ति व आभ्यन्तर वृत्ति के विषयों से हट कर किया जाने वाला यह चौथा प्राणायाम होता है।

भावार्थ :- बाह्य वृत्ति प्राणायाम के बाद श्वास भरना इसका विषय है। आभ्यन्तर वृत्ति के बाद श्वास छोड़ना इस प्राणायाम का विषय है। "श्वास भरने" व "श्वास छोड़ने" के विषयों को त्याग कर विपरीत क्रिया करना चतुर्थ प्राणायाम है। आईये इसको विस्तार से समझ लेते हैं।

चतुर्थ प्राणायाम की विधि :

यह प्राणायाम पहले बताये गये दो प्राणायाम (बाह्य वृत्ति व आभ्यन्तर वृत्ति) से अलग है। यह एक उन्नत (उच्च कोटि का) अभ्यास है। यह केवल नियमित योग अभ्यासियों के लिये है। नये अभ्यासी इसका अभ्यास न करें।

बैठने की स्थिति :- पद्मासन या सुखासन की स्थिति मे बैठें। रीढ को सीधा रखें। आँखें कोमलता से बन्ध तथा हाथों ज्ञान मुद्रा मे रखें।

बाह्य वृत्ति की स्थिति :-  भरे हुए श्वास को रेचक करे (खाली करें)। पूरी तरह श्वास खाली करने के बाद अपनी क्षमता अनुसार कुछ देर खाली श्वास की स्थिति मे रुकें। कुछ देर रुकने के बाद श्वास को अन्दर भरने का मन करेगा। लेकिन इस 'श्वास भरने की इच्छा' के विपरीत श्वास को एक बार थोड़ा सा बाहर की ओर धकेलें। यह चतुर्थ प्राणायाम है। इसके बाद धीरे-धीरे श्वास का पूरक करें (श्वास भरें)।

आभ्यन्तर वृत्ति की स्थिति :- पूरा श्वास भरने के बाद अपनी क्षमता अनुसार कुछ देर भरे श्वास की स्थिति मे रुकें। कुछ देर रुकने के बाद श्वास को बाहर छोड़ने की इच्छा होती है। लेकिन इस 'श्वास को बाहर छोड़ने की इच्छा' के विपरीत थोड़ा सा श्वास अन्दर की ओर भरें। यह चतुर्थ प्राणायाम है। इस के बाद धीरे धीरे श्वास को बाहर छोड़ें।

यह एक आवर्ती पूरी हुई। आरम्भ मे केवल एक ही आवर्ती करें। अभ्यास पूरा करने के बाद श्वासो को सामान्य करें।

चतुर्थ प्राणायाम की सावधानी :

इस प्राणायाम का अभ्यास सावधानी से करना चाहिए। असावधानी से किया गया अभ्यास हानिकारक हो सकता है। यह अभ्यास करते समय इन सावधानियों को ध्यान में रखें :-

आरम्भ मे यह अभ्यास किसी कुशल योग-प्रशिक्षक के निर्देशन मे ही करना चाहिए।

श्वास रोगी, हृदय रोगी, उच्च रक्तचाप पीड़ित तथा नये अभ्यासी इस प्राणायाम को न करें। इनके लिये हानिकारक हो सकता है।

इस अभ्यास मे श्वास रोकने के लिये अनावश्यक बल प्रयोग न करें। ऐसा करना हानिकारक हो सकता है।

लाभ :

• चतुर्थ प्राणायाम योग की एक उन्नत स्थिति है। योग के नियमित साधकों के लिये यह लाभदायी अभ्यास है।

यह श्वसनतंत्र को सुदृढ करता है।

यह अभ्यास प्राण-ऊर्जा की वृद्धि करता है।

इसका नियमित अभ्यास ध्यान क्रिया (Meditation) मे सहायक होता है।

सारांश :

'बाह्य वृत्ति' तथा 'आभ्यन्तर वृत्ति' के विषयों से विपरीत किया गया अभ्यास चतुर्थ प्राणायाम है। यह अभ्यास केवल सुदृढ श्वसन वाले नियमित योग साधकों के लिए है। सामान्य अभ्यासी पहले बाह्य वृत्ति तथा आभ्यन्तर वृत्ति का अभ्यास करें।

Disclaimer :

प्राणायाम की सभी क्रियाएं अपने श्वास की क्षमता के अनुसार करनी चाहिए। सरलता से किया गया अभ्यास लाभदायी होता है। बलपूर्वक व क्षमता से अधिक किया गया अभ्यास हानिकारक हो सकता है। लेख मे बताया गया अभ्यास रोगग्रस्त तथा नये अभ्यासियों के लिये नही है। यह केवल स्वस्थ व नियमित योग साधकों के लिये है।

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