महर्षि पतंजलि भारत मे एक महान ऋषि हुए हैं। उन्होने सम्पूर्ण योग को सूत्रों द्वारा परिभाषित किया है। उनकी इस महान रचना को "योगसूत्र" के नाम से जाना जाता है। अष्टांगयोग - पतंजलि योगसूत्र में सम्पूर्ण योग का आधार है। योगसूत्र के दूसरे व तीसरे पाद (अध्याय) मे इसका विस्तार से वर्णन किया गया है। इसी को सम्पूर्ण योग कहा गया है। अष्टांग योग क्या है, आगे इस लेख मे इसका विस्तार से वर्णन किया जायेगा।
अष्टांगयोग, योगसूत्र के अनुसार।
महर्षि पतंजलि ने "योगसूत्र" मे योग को सरल शब्दों मे परिभाषित किया है। वे पहले अध्याय के दूसरे सूत्र मे योग की परिभाषा देते हैं :- "योगश्चितवृति निरोध:"। अर्थात् "चित्तवृत्तियों का निरोध करना ही योग है"। आगे महर्षि पतंजलि बताते है कि 'चित्त वृत्तियों' का निरोध कैसे किया जाना चाहिए।
देखें :- चित्तवृत्तियाँ क्या हैं?
चित्तवृत्ति के निरोध के लिये "अष्टांगयोग" का प्रतिपादन किया है। इसको चित्तवृत्तियों के निरोध का साधन बताया गया है। इसका वर्णन दूसरे व तीसरे अध्याय मे किया गया है। योग को जानने के लिये "अष्टांगयोग" को समझना जरूरी है।
देखें :- महर्षि पतंजलि कौन थे?
अष्टांगयोग क्या है?
अष्टांगयोग को "चित्तवृत्ति निरोध" का मार्ग बताया है। अर्थात् यह सम्पूर्ण योग है। इसके बिना योग सम्भव नही है। इसके 8 अंग बताये गये हैं। योगसूत्र के साधन पाद (दूसरा अध्याय) मे इसका वर्णन आता है।
यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहरधारणाध्यानसमाधयोअष्टावअङ्गानि ।। यो.सू. 2.29 ।।
अर्थ :- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये आठ अंग हैं।
इन आठ अंगों मे पूरा योग समाहित है। पहले पांच अंगो को "बहिरअंग" और बाद के तीन अंगो को "अंतरअंग" कहा गया है। आईए इसके बारे मे विस्तार से जान लेते हैं।
1. यम :
यह अष्टांगयोग का पहला अंग है। इसमें सामाजिक नैतिकता के बारे मे बताया गया है। यम पांच प्रकार के बताये गये हैं। योगसूत्र-साधन पाद के '30वें' सूत्र मे इसका वर्णन आता है :--
अहिंसा :- किसी को मन, कर्म तथा वचन से हानि न पहुंचाना अहिंसा है। किसी प्राणी को हानि पहुंचाने का 'विचार न करना' अहिंसा है। किसी की अपने कार्य से हानि न हो यह अहिंसा है। किसी को कटु वचन नही बोलना चाहिये।
सत्य :- जैसा देखा गया, सुना गया या जैसा हम जानते हैं, वही कहना सत्य है।
अस्तेय :- जिस वस्तु पर किसी और का अधिकार है, उसे न लेना अस्तेय है। 'चोरी न करना' अस्तेय है।
ब्रह्मचार्य :- इंन्द्रियों को वश मे रखना। ईश्वर अराधना करना। यह ब्रह्मचार्य है।
अपरिग्रह :- अवश्यकता से अधिक संचय न करना, अपरिग्रह है।
उपरोक्त पांच यम जब सार्वभौम हो जाते है तो यह महाव्रत कहे जाते हैं।
सार्वभौम महाव्रत क्या है?
"सार्वभौम" होने का अर्थ समझने के लिये महर्षि पतंजलि के इस सूत्र को समझना होगा :- जातिदेशकालसमयानवच्छिन्ना: सार्वभौमा महाव्रतम्।। यो.सू. 2.31 ।।
(जाति देश काल समय अवच्छिन्ना: सार्वभौमा महाव्रतम्।)
अर्थ :- उक्त अहिंसा आदि 'यम' जाति, स्थान, समय की सीमाओं से रहित हो जाने से ये सार्वभौम (सब के लिए समान) हो जाते हैं। इनके सार्वभौम हो जाने पर ये महाव्रत कहे जाते हैं।
सूत्र का भावार्थ :-
जब कोई व्यक्ति यह प्रण ले कि वह किसी एक प्राणी के अतिरिक्त जीव-हिंसा नही करेगा। यह जाति-अवच्छिन्न अहिंसा है।
जब कोई यह नियम ले कि वह किसी विशेष स्थान पर ही अहिंसा का पालन करेगा, तो यह देश-अवच्छिन्न अहिंसा है।
यदि कोई यह नियम ले कि वह केवल किसी विशेष दिन ही अहिंसा का पालन करेगा, तो यह काल-अवच्छिन्न अहिंसा है।
यदि कोई यह नियम ले कि वह किसी एक अवसर को छोड़ कर अहिंसा का पालन करेगा, तो यह समय-अवच्छिन्न अहिंसा है।
इन सीमाओं से रहित होने पर यह सब प्राणियों के लिये, सब स्थानों पर तथा सभी दिनो पर समान हो जाता है।
इसी प्रकार सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचार्य और अपरिग्रह को समझ लेना चाहिए। अर्थात् ये पांचो यम सभी सीमाओं से रहित होने पर ही महाव्रत होते हैं।
2. नियम :
यह अष्टांगयोग का दूसरा अंग है। इसमें व्यक्तिगत शुद्धि पर बल दिया गया है। इसका वर्णन '32वें' सूत्र मे किया गया है।
शौचसंतोषतप: स्वाध्यायेश्वरप्राणिधानानि नियमा।। यो.सू. 2.32।।
शौच :- आन्तरिक व बाह्य शुद्धि को शौच कहा गया है। बाहरी सुचिता (सफाई) के लिये हम स्नान आदि क्रियाएं करते हैं। बाह्य सुचिता के साथ आन्तरिक सुचिता भी इसका अंग है। इसके लिये विचारों मे शुद्धता होनी चाहिए।
संतोष :- आत्म सन्तुष्टि को संतोष कहा गया है। पुरुषार्थ (मेहनत) करने के बाद जो फल प्राप्त होता है, उसे ईश्वर का प्रसाद समझ कर ग्रहण करें। सन्तुष्टि का भाव मन मे रखें।
तप :- शरीर को भूखा-प्यासा रखना या महीनों तक खड़ रहना तप नही है। प्रत्येक विपरीत स्थिति को सहन करने की शक्ति तप है। सुख-दुख, जय-पराजय, मान-अपमान की स्थिति मे समानता का भावना रखना तप है।
स्वाध्याय :- स्वयं के बारे मे जानना स्वाध्याय है। आत्म स्वरूप को जानने का मार्ग बताने वाले ग्रंथों का अध्ययन करना स्वध्याय है।
ईश्वर प्राणिधान :- फल की कमना किये बिना अपना कार्य करते रहना, तथा उसे ईश्वर को समर्पित कर देना, ईश्वर प्राणिधान है।
3. आसन :
"आसन" अष्टांगयोग का महत्वपूर्ण अंग है। यह शरीर के आन्तरिक व बाह्य अंगो को सुदृढ करते हैं। शरीर की पाचन क्रिया तथा शरीर के रसायनों को सन्तुलित रखते हैं। 'आसन' रक्तचाप को सामान्य रखने मे सहायक होते हैं। पतंजलि योगसूत्र मे इसको '46वें' सूत्र मे परिभाषित किया गया है।
अर्थ :- स्थिरता पूर्वक व सुखपूर्वक जिस पोज मे बैठ सकते है, वह आसन है।
स्थिरता :- इसका अर्थ है कि आसन की पूर्ण स्थिति मे पहुंच कर स्थिरता के साथ रुकें। आसन की पूर्ण स्थिति मे रुकना ही लाभदायी होता है।
सुखपूर्वक :- इसका अर्थ है कि आसन सरलता से किये जाने चहाएं। जो आसन सुख की अनुभूति कराएं वह आसन अवश्य करना चाहिए। कठिन आसन न करें। यदि कोई कठिन आसन कर रहे है तो उसकी पूर्ण स्थिति मे न जाएं। पीड़ा का अनुभव होने पर आसन से वापिस आ जाएं। आसन के अभ्यास मे बल प्रयोग न करें।
4. प्राणायाम :
सूत्र का भावार्थ :- इस सूत्र मे प्राणायाम को परिभाषित किया गया है। आसन को सफलता पूर्वक करने के बाद प्राणायाम करें। सहज गति से श्वास लेने और छोड़ने की क्रिया दिन-रात लगातार चलती रहती है। जब हम इस "सहज गति" के श्वास को कुछ देर के लिये रोक देते है तो इसे प्राणायाम कहा जाता है।
अर्थ :- बाह्यवृत्ति, आभ्यन्तर वृत्ति तथा स्तम्भ वृत्ति ये तीन प्रकार के प्राणायाम, स्थान, समय की गणना पूर्वक देख व समझ कर करने से श्वास लम्बा व हल्का हो जाता है।
बाह्य वृत्ति प्राणायाम :- श्वास को बाहर छोड़ कर अपनी क्षमता के अनुसार रुकना बाह्य वृत्ति प्राणायाम है। इसे बाह्य कुम्भक भी कहा जाता है।
आभ्यन्तर वृत्ति प्राणायाम :- श्वास भरने के बाद भरे श्वास मे रुकना, आभ्यन्तर वृत्ति प्राणायाम है। इसे आन्तरिक कुम्भक भी कहा गया है।
स्तम्भ वृत्ति प्राणायाम :- इस अवस्था मे श्वास जिस स्थिति मे है (भरा हुआ या खाली), कुछ देर रोक दिया जाता है। यह प्राणायाम मे आनन्द की स्थिति होती है। पहले बताये गये दोनो प्राणायाम मे सफलता मिलने के बाद यह स्थिति बनती है। यह स्थिति अप्रयास होती है। इस मे अधिक प्रयास की अवश्यकता नही होती है। इसे कैवल्य कुम्भक भी कहा गया है।
5. प्रत्याहार :
अर्थ :- जब इन्द्रियां अपने विषयों से हट कर चित्त के स्वरूप मे स्थित होती है, यह प्रत्याहार है।
6. धारणा :
देशबन्धश्चित्तस्य धारणा।। यो.सू. 3.1 ।।
अर्थ :- चित्त को एक स्थान पर बांधना (एकाग्र करना), धारणा है।
7. ध्यान :
धारणा के बाद सातवां चरण "ध्यान" है। चित्त को एक स्थान पर एकाग्र करना ध्यान की स्थिति है।
तत्रप्रत्ययैकतानता ध्यानम्।। यो.सू 3.2 ।।
अर्थ :- जिस स्थान पर धारणा को स्थापित किया गया है, उसे एक स्थान पर केन्द्रित करना "ध्यान" है।
8. समाधि :
यह योग की पूर्ण स्थिति है। ध्यान के एकाग्र होने के बाद चित की वृत्तियों का निरोध होने लगता है तो समाधि की स्थिति बनती है।
तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपसून्यमिव समाधि।। यो.सू. 3.3 ।।
अर्थ :- जब साधक अपने स्वरूप को भूल कर केवल ध्येय (जिसका ध्यान किया जा रहा है) मे लीन हो जाता है। यह समाधि की स्थिति होती है।
सारांश :
महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र मे "चित्त वृत्तियों के निरोध" को योग बताया है। इसका मार्ग अष्टांग योग बताया है। इस के आठ अंग हैं। पतंजलि योगसूत्र मे इसका विस्तार से वर्णन किया गया है।